जिन्दगी और मौत पर भी, हवस है छाने लगी।
आदमी को, आदमी की हवस ही खाने लगी।।
हवस के कारण, यहाँ गणतन्त्रता भी सो रही।
दासता सी आज, आजादी निबल को हो रही।।
पालिकाओं और सदन में, हवस का ही शोर है।
हवस के कारण, बशर लगने लगा अब चोर है।।
उच्च-शिक्षा में अशिक्षा, हवस बन कर पल रही।
न्याय में अन्याय की ही, होड़ जैसी चल रही।।
हबस के साये में ही, शासन-प्रशासन चल रहा।
हवस के साये में ही नर, नारियों को छल रहा।।
डॉक्टरों, कारीगरों को, हवस ने छोड़ा नही।
मास्टरों ने भी हवस से, अपना मुँह मोड़ा नही।।
बस हवस के जोर पर ही, चल रही है नौकरी।
कामचोरों की धरोहर, बन गयी अब चाकरी।।
हवस के बल पर हलाहल, राजनीतिक घोलते।
हवस की धुन में सुखनवर, पोल इनकी खोलते।।
चल पड़े उद्योग -धन्धे, अब हवस की दौड़ में।
पा गये अल्लाह के बन्दे, कद हवस की होड़ में।।
राजनीति अब, कलह और घात जैसी हो गयी।
अब हवस शैतानियत की, आँत जैसी हो गयी।।
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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015
"आदमी को हवस ही खाने लगी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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