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शनिवार, 24 अक्तूबर 2015

"जानिए मोहर्रम के बारे में भी"

इस्लामी कलेण्डर के अनुसार 12 महीनों के नाम
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जानिए मोहर्रम के बारे में
        इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है मोहर्रम। इसे इस्लामी इतिहास की सबसे दुखद घटना के लिए भी याद किया जाता है। इसी महीने में 61 हिजरी में यजीद नाम के एक आतताई ने इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम और उनके 72 अनुयाइयों का कत्ल कर दिया था। सिर्फ इसलिए क्योंकि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने यजीद को खलीफा मानने से इनकार कर दिया था। इनकार इसलिए किया था, क्योंकि उनकी नजर में यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी, जबकि यजीद चाहता था कि वह खलीफा है, इसकी पुष्टि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम करें। क्योंकि वह हजरत मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर काफी अच्छा प्रभाव है।
        यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब की कर्मभूमि मदीना छोड़ देंगे, ताकि वहां का अम्नो-अमान कायम रहे। और निकल पड़े इराक स्थित कुफानगरी के लिए। वहां के लोगों ने उन्हें अपने यहां आने का पैगाम भेजा था। लेकिन कुफानगरी के रास्ते में करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। उनके पास खाना-पानी तक नहीं पहुंचने दिया। इस काफिले में औरतें और बच्चे भी शामिल थे। यजीद के फौजियों को उन पर भी रहम नहीं आया। सबको भूखे-प्यासे घेरे रखा। इस तरह से इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम पर उसने जबरदस्ती जंग थोप दी।
       इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम और उनके साथियों की तादाद सौ से भी कम थी, जबकि यजीद के फौजी हजारों में थे। फिर भी उन लोगों ने हार नहीं मानी और पूरी बहादुरी के साथ लड़े। उनकी बहादुरी से एकबारगी तो यजीद के फौजियों के दिल भी दहल गए। सबसे आखिर में लड़ते-लड़ते इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने सजदे में अपना सिर कटा दिया। इससे पहले अपने तमाम साथियों को अपनी आंखों से उन्होंने शहीद होते देखा। वह तारीख थी 10 मोहर्रम। उसके बाद इन सबके शव को तलवार की नोंक पर लेकर यजीद के फौजी दमिश्क आए, जो उस वक्त यजीद की राजधानी थी और वहां दहशत फैलाने के लिए उन शवों को पूरे शहर में घुमाया। 
       इसी कुरबानी की याद में मोहर्रम मनाई जाती है। इसलिए भी मनाई जाती है, क्योंकि इससे हक की राह में कुरबान हो जाने का सबक मिलता है। ताकतवर से ताकतवर के सामने हक के लिए डटे रहने का जज्बा पैदा होता है। अंजाम की परवाह किये बिना सच पर कायम रहने की हिम्मत पैदा होती है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इसके साथ ही यह पता चलता है कि हार-जीत, जीने-मरने से नहीं, बल्कि इस बात से तय होती है कि आप का रास्ता क्या था। आप किन उद्देश्यों के लिए लड़े, डटे रहे।
       करबला की जंग यही बताती है कि इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम हक के लिए शहीद हुए। सच्चई के लिए जान देने वाले हारते नहीं, हमेशा जीतते हैं। मिसाल कायम करते हैं। यही वजह है कि आज भी इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम को लोग याद करते हैं। लेकिन न कोई यजीद को याद करता है और न उसकी कौम को। भारत में तो इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम यह मुकाम है कि जब शादी कर के बहू पहली मरतबा घर आती है, तो सास उसे दुआ देती है कि गमें हुसैन के अलावा तुम्हें और कोई गम न हो। लोकशाही के लिए भी यह जंग मिसाल है, क्योंकि यजीद को विरासत में खलीफा का पद मिला था, जिसका विरोध इमाम हुसैन अलैयहिस्सलाम ने किया था।
      भारत में भी मोहर्रम को सच के लिए कुरबान हो जाने के जज्बे से मनाते हैं और इसे सिर्फ मुस्लिम नहीं मनाते, हिंदू भी मनाते हैं। दत्त और हुसैनी ब्रह्मण तो मोहर्रम में पूरे 10 दिन का शोक मनाते हैं।

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