यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

अगीत - त्रयी...---- भाग चार -------डा रंगनाथ मिश्र सत्य के अगीत कुछ अगीत -----डा श्याम गुप्त..


           
अगीत - त्रयी...---- भाग चार -------डा रंगनाथ मिश्र सत्य के अगीत कुछ अगीत -----
|
--------अगीत कविता विधा के तीन स्तम्भ कवियों के परिचय साहित्यिक परिचय एवं रचनाओं का परिचय ---
अगीत कवि कुलगुरु साहित्यभूषण
डा रंगनाथ मिश्र सत्य
महाकवि श्री जगत नारायण पांडे
महाकवि डा श्याम गुप्त-


भाग चार--- डा सत्य के अगीत यहाँ प्रस्तुत हैं ..

१.
" मां वाणी !
मुझको ज्ञान दो
कभी न आये मुझमें स्वार्थ ,
करता रहूँ सदा परमार्थ ;
पीडाओं को हर दे मां !
कभी न सत्पथ से-
मैं भटकूं
करता रहूँ तुम्हारा ध्यान | "

" घर घर में खुशहाली लाएं ,
जीवन साकार करें ;
नवयुग निर्माण करें ,
सबको निज गले लगाएं | "
३.
" दलितों के प्रति मत करो अन्याय
उन्हें भी दो समानता से-
जीने का अधिकार , अन्यथा-
भावी पीढ़ी धिक्कारेगी, और-
लेगी प्रतिकार ;अतः --
ओ समाज के ठेकेदारो !
उंच-नीच की खाई पाटो ,
दो शोषितों को ही न्याय | "
४.
" बूँद बूँद बीज ये कपास के,
खिल-खिल कर पड रही दरार;
सडी-गली मछली के संग,
ढूँढ रहा विस्मय विस्तार,
डूब गए कपटी विश्वास के | "
५.
दिशाहीन नहीं हूँ अभी-
पाई है केवल बदनामी,
खोज रहे हैं मुझको,
मेरे प्रेरक सपने
मिलनातुर हैं मुझसे
मेरे सारे अपने,
क्रियाहीन नहीं हूँ अभी
यह तो है जग की नादानी |
६.
" असफलता आज थक गयी है ,
गुजरे हैं हद से कुछ लोग ,
उनकी पहचान क्या करें ?
अमृत पीना बेकार,
प्राणों की चाह है अधूरी ,
विह्वलता और बढ़ गयी है |"

७.
"" श्रम से जमीन का नाता जोड़ें ,
श्रम जीवन का मूलाधार ,
श्रम से कभे न मानो हार ;
श्रम ही श्रमिकों की मर्यादा,
श्रम के रथ को फिर से मोड़ें
८.
" सपने में मिलने तुम आये,
धीरे से तन छुआ,
आँखें भर आईं , दी दुआ;
मौन स्तब्ध साक्षात हुआ ,
सहसा विश्वास जमा -
मन को तुम आज बहुत भाये | "
९.
" नवयुग का मिलकर
निर्माण करें ,
मानव का मानव से प्रेम हो ,
जीवन में नव बहार आये |
सारा संसार एक हो,
शान्ति औए सुख में-
यह राष्ट्र लहलहाए "

१०.
" तुमे मिलने आऊँगा,
बार बार आऊँगा |
चाहो तो ठुकरादो,
चाहो तो प्यार करो |
भाव बहुत गहरे हैं,
इनको दुलरालो | "
११.
" आओ हम अंधकार दूर करें ,
रात और दिन खुशी-खुशी बीते;
सारा संसार शान्ति पाए ,
अपना यह राष्ट्र प्रगतिगामी हो ;
वैज्ञानिक उन्नति से ,
इसको भरपूर बनाएँ | "
१२.
"टूट रहा मन का विश्वास ,
संकोची हैं सारी
मन की रेखाएं|
रोक रहीं मुझको
गहरी बाधाएं |
अंधकार और बढ़ रहा ,
उलट रहा सारा इतिहास | "
१३.
"कवि चिथड़े पहने
चखता संकेतों का रस,
रचता -रस, छंद, अलंकार
ऐसे कवि के क्या कहने |"
१४.
" स्तम्भन एक और ....
संबंधी भीड़-भाड
ध्वंस की कतारों में ;
मक्षिका नहा रही-
दूध के पिटारों में |
ढला ढला लगता सब ओर...
अपने में स्नेह-सिक्त,
तिरछा भूगोल |"
१५.
"देव नागरी को अपनाएं
हिन्दी है जन जन की भाषा ,
भारत माता की अभिलाषा |
बने राष्ट्रभाषा अब हिन्दी,
सब बहनों की बड़ी बहन है
हिन्दी सबका मान बढाती ,
हिन्दी का अभियान चलायें|"
१६.
"आओ ! हम राष्ट्र को जगाएं
आजादी का जश्न मनाना,
हमारी मजबूरी नहीं-
अपितु कर्तव्य है |
आओ हम सब मिलकर
विश्व-बंधुत्व अपनाएं,
स्वराष्ट्र को प्रगति पथ पर -
आगे बढाएं |"
१७.
"इधर उधर जाने से
क्या होगा ;
मोड़ मोड़ पर जमी हुईं हैं ,
परेशानियां |
शब्द -शब्द अर्थ सहित
कह रहीं कहानियां
मन को बहलाने से
क्या होगा |"
१८.
सबका सम्मान करो
सब भारत मां की हैं संतानें
उनमें मतभेद मत करो |
उंच-नीच का जो
भ्रमजाल आज फैला है,
मिलजुलकर उसको भी दूर करो |
१९.
आशाएं साथ हैं हमारे
कभी कभी द्वार पर टेरती उदासी
तनहाई में मुझको
घेरती उदासी ,
बिछुडन भी होरही उदास
बाधाएं साथ हैं हमारे |
२०.
जीवन तो तुझको है अर्पण
ध्यान मग्न बैठा हूँ मैं
देख रहा तेरा श्रृंगार,
साहस को फिर बटोरकर
आया हूँ फिर तेरे द्वार
शेष सभी तुझको समर्पण |
२१.
नवल प्रात: आया है आज यहाँ
धीरे धीरे रात चली गयी,
ऊषा ने जब प्रभात फैलाया |
सूरज भी चलने को आतुर है,
लाजवंती शाम ढल गयी,
अन्धकार गहराया आज यहाँ |
२२.
आँखों को चित्र भागया
कैसे मैं छोडूं यह महानगर
बाधाएं दो नहीं हज़ारों,
आशाएं कर रहीं श्रृंगार
पार्कों में बैठे कुछ लोग
जीवन का दर्द रहे बाँट
अपने में डूब गया सत्य
देख रहा गोमती डगर |
२३.
धीरज को बाँध नहीं पाता...|
जीवन में छागई उदासी,
मन को समझाता हूँ बार बार,
वह भी तो साथ नहें देता |
कैसे मैं व्यक्त करूँ
अंतर-पीडाओं को
इसका भी ध्यान नहीं आता|

२४.
कैसे तुम्हें भूल जाऊं
सारा विश्वास तुम्हीं हो,
मेरा आकाश तुम्हीं हो,
सारे संसार में अकेले,
मेरा मधुमास तुम्हीं हो
तुमको तज और कहाँ जाऊं |
१३.
आतप ने सांकल खटकाई जब
बिरहन की पीड़ा दोगुनी हुई |
जोर जोर चलती हैं, विष भरी हवाएं
तन मन में आग लगी
कौन आ बुझाए|
भेजी जब प्रियतम ने पाती परदेश से
सीने पर रखने से
पीड़ा कुछ कम हुई |
२६.
चलना ही नियति हमारी है
घूम घूम कर करता रहता आभास
धरती के साथ साथ
सोया आकाश ,
लक्ष्यों तक जाने को
निश्चित स्वर पाने को
संसृति को होता विश्वास,
चलना ही प्रगति हमारी है |
२७.
संघर्षों से कभी न ऊबें |
जो भी हम आज जीरहे
उसका तो अंत सत्य है,
कर्मों को करते जाएँ हम
अपने कर्तब्यों में बार बार डूबें |

२८.
"ओ बसंत ! फिर आना
सिहरन के साथ |
तेरे आने की आहट मिल जाती है;
पाहुन से मिलने की,
इच्छा तडपाती है ;
ओ बसंत ! फिर आना ,
मनसिज के साथ | "
२९.
आओ हम सृजन को जियें |
सत्य और संयम, मन में उत्साह भरें
जीवन आशान्वित हो
शान्ति के सहारे |
हिंसा का त्याग करें
सबको सुख दे करके
हम गरल पियें|
३०.
जिन्दगी में सुख-दुःख दोनों ही मिलते रहते |
जिन्दगी का सत्य क्या रहा
जीवन का तथ्य क्या रहा,
जिन्दगी में शूल यदि मिले
तो फूल भी कभी कभी खिले ,
जिन्दगी में हृदयों के दीप जलते रहते...|
.......क्रमश---भाग पांच----









कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

फ़ॉलोअर

मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...