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मंगलवार, 23 जनवरी 2018

तुम तुम और तुम ----डा श्याम गुप्त


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तुम तुम और तुम
सकल रूप रस भाव अवस्थित , तुम ही तुम हो सकल विश्व में |
सकल विश्व तुम में स्थित माँ,अखिल विश्व में तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम , तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो तुम ही तुम हो ||

तेरी वींणा के ही नाद से, जीवन नाद उदित होता है |
तेरी स्वर लहरी से ही माँ ,जीवन नाद मुदित होता है |
ज्ञान चेतना मान तुम्ही हो ,जग कारक विज्ञान तुम्ही हो |
तुम जीवन की ज्ञान लहर हो,भाव कर्म शुचि लहर तुम्ही हो |

अंतस मानस या अंतर्मन ,अंतर्हृदय तुम्हारी वाणी |
अंतर्द्वंद्व -द्वंद्व हो तुम ही , जीव जगत सम्बन्ध तुम्ही हो |
तेरा प्रीति निनाद न होता , जग का कुछ संबाद न होता |
जग के कण कण भाव भाव में,केवल तुम हो,तुम ही तुम हो |

जग कारक जग धारक तुम हो,तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो |
तुम तुम तुम तुम, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |
तुम्ही शक्ति, क्रिया, कर्ता हो, तुम्ही ब्रह्म इच्छा माया हो |
इस विराट को रचने वाली, उस विराट की कृति काया हो |

दया कृपा अनुरक्ति तुम्ही हो, ममता माया भक्ति तुम्ही हो |
अखिल भुवन में तेरी माया,तुझ में सब ब्रह्माण्ड समाया |
गीत हो या सुर संगम हे माँ!, काव्य कर्म हो या कृति प्रणयन |
सकल विश्व के गुण भावों में, तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो |

तेरी कृपा-दृष्टि का हे माँ, श्याम के तन मन पर साया हो |
मन के कण कण अन्तर्मन में, तेरी प्रीति-मयी छाया हो ।
स्रिष्टि हो स्थिति या लय हो माँ!, सब कारण का कारण, तुम हो ।
तुम ही तुम हो,तुम ही तुम हो,तुम तुम तुम तुम माँ, तुम ही तुम हो ॥

रविवार, 21 जनवरी 2018

पुस्तक-समीक्षा —-जिज्ञासा काव्य-संग्रह ---डा श्यामगुप्त

पुस्तक-समीक्षा —-जिज्ञासा काव्य-संग्रह ---डा श्यामगुप्त

                               



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 पुस्तक-समीक्षा------
समीक्ष्य कृति—-जिज्ञासा काव्य-संग्रह --- रचनाकारश्री प्रेमशंकर शास्त्री ‘बेताव’ ..प्रकाशक—अखिल भारतीय अगीत परिषद्, लखनऊ ..प्रकाशन वर्ष—२०१७ ई....मूल्य -१५०/- समीक्षक---डा श्यामगुप्त
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                    श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी द्वारा रचित काव्य संग्रह ‘जिज्ञासा’ का अवगाहन करने का अवसर प्राप्त हुआ | हिन्दी के प्रवक्ता पद पर कार्यरत बेताब जी की हिन्दी साहित्य व काव्य में रूचि स्वाभाविक है | एक शिक्षक होने के नाते सामाजिक सरोकार, मानवीय आचरण एवं उपदेशात्मक भाव कृति में सर्वत्र समाहित हैं|
                      ------आपके पिता व माताजी को समर्पित इस काव्यकृति में छप्पन विविध विषयक एवं विविध प्रकार के छंद युक्त रचनाओं से युक्त इस कृति में कलम, ग्राम-सुधार, मानव आचरण, भाग्य व ईश्वर, हिन्दी की प्रशस्ति, शिक्षक गरिमा, पर्यावरण, स्वच्छता जैसे सांसारिक व दार्शनिक विषयों के साथ साथ सामयिक सन्देश भी सौन्दर्यमयता से वर्णित हैं|
                ------अपनी बात में वे अपने कविकर्म का उद्देश्य व स्वदृष्टि प्रकट करते हैं ,”क्योंकि जो समाज में होरहा है, या होता है, उससे रचनाकार अछूता नहीं रह सकता |’...”इसप्रकार रचनाकार समाज का सजग प्रहरी है
-------कविता का भाव अर्थ व मानव जीवन पर वृहद् प्रभाव पर अपनी दृष्टि बेताब जी प्रारम्भ में ही स्पष्ट कर देते हैं, ---
-’हमेशा दो दिलों को जोड़कर कविता दिखा देती ..”
----इतिहास साक्षी है की काव्य ने समय समय पर समाज व साम्राज्यों की संरचनाओं को प्रभावित किया है |
सरस्वती वन्दना में कवि माँ से मानवता के लिए प्रार्थना करता है-
हम चलें नेक राहों पर, मन शुभ भावों से भरा रहे |’
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                         माँ की विविध नामों से एवं विविध देवों की वन्दना वही नवीन प्रयोग है जो मैंने अपने महाकाव्यों सृष्टि एवं प्रेमकाव्य में दस दस वन्दनाएँ प्रस्तुत करके किया था |
                ----साहित्यकार बोधक एवं लिखने हेतु विभिन्न विषयों का सांगोपांग समुचित वर्णन रचना ‘कलम की आवाज’ में दिया गया है भाग्य-चक्र में, ‘भाग्य से ही प्रभु वन पथ पर चले “ द्वारा भाग्य को कोसने की अपेक्षा कर्म पर विश्वास जताया गया है | नीति के दोहों में वैज्ञानिकता युक्त शास्त्र सम्मत विविध कर्मों व कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है |
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                          नारी की अस्मिता किसी भी राष्ट्र का ही पर्याय है | रचना ‘--
 नारी का सम्मान करो, 
मत भारत को बदनाम करो ‘ -----में ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते...’ का भाव ही ध्वनित है |
                     -----भारतीय सम्यक दृष्टि का वैश्विक भाव वर्णन वे इस प्रकार करते हैं--
‘वैसे तो हम समदृष्टा हैं 
धर्म आदि का भेद भुलाकर रखते हैं| ‘------यह निश्चय ही ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र ---
..’समानी अकूती समानी हृदयानि वा, 
समामस्तु वो यथा सुसहमति “ ----से तादाम्य करती है | शिक्षक गरिमा की बात शिक्षक लेखक कैसे भूल सकता है, कवि का कहना है कि,’ है गुरुतर भार यही हम पर, ज्ञान की ज्योति जलाने का ..’|
.-----बस मज़ा ही कुछ और है..’ शीर्षक विशेष है जिसमें प्रतिदिन के क्रियाकलापों का सुन्दर वर्णन है ..
लम्बी लम्बी हांकने का, भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है ‘.....
\
प्रकृति की आवाज़ ही कवि को रचना हेतु प्रेरणा देती है—‘
जबसे अलि को सुना गुनगुनाते हुए,
तबसे गाने की मुझसे लगन लग गयी ..’ |
         ------अपने इतिहास व अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कटकर कोई भी राष्ट्र उन्नत नहीं हो सकता | देववाणी संस्कृति हमारी भाषा, संस्कृति व सामाजिक सभ्यता के प्रवाह की मूल सलिला है | कविवर बेताब आव्हान करते हैं—‘संस्कार की जननी है देववाणी, 
इसका गौरव भी सबको बता दीजिये |
-----------कृति की शीर्षक रचना ‘जिज्ञासा’ में कृति को माँ सरस्वती की अनुकम्पा घोषित करते हुए कविवर प्रेमशंकर बेताब जी अपने कृतित्व से संतुष्ट हैं, वे कहते हैं—“मुराद रही जो मन में मन भर, अब तो पूरी हुई सही |’..यह कवि का आशावाद है, स्वयं पर आत्मविश्वास |
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                           कृति की भाषा मूलतः सरल सामान्य बोलचाल की खड़ीबोली हिन्दी है, जो स्पष्ट भावसम्प्रेषण में समर्थ है | यथानुसार देशज, उर्दू, अंग्रेज़ी, संस्कृत के शब्द भी प्रयुक्त हैं| रचना ‘चक्कर स्वारथ का देखौ’...में अवधी का प्रयोग हुआ है | शैली सहज सरल प्रवाहयुक्त व अभिधात्मक है कथ्यशैली मूलतः उपदेशात्मक है, यथा विषयानुसार दार्शनिक व वर्णानात्मक भी है | रस, अलंकार भी आवश्यकतानुसार प्रयोग हुए हैं| सदाचार की अगम नदी में –रूपक, मोती सा चमकाती हूँ में उपमा एवं गेहूं घुन जस खाय, में उत्प्रेक्षा अलंकार की सुन्दरता है | अगर जरूरत पडी देश को, अपना लहू बहा देंगे में बीररस एवं भाभी से हाल पूछने का, मज़ा ही कुछ और है में मर्यादित श्रृंगार है |
--------सभी प्रकार के प्रचलित गीत बन्दों एवं दोहा, कुण्डली, घनाक्षरी, सोरठा, पद आदि छंदों का प्रयोग किया गया है –एक सुन्दर कला व भाव युक्त मनहरण कवित्त देखें—
भाव की, भाषा छंद की, प्रगाढ़ गाढ़ ज्ञान की ,
मधु मंद रव की पुकार भर दीजिये
रचना डाकिया में अतुकांत छंद का भी प्रयोग किया गया है ..’औरों की चिंता में डूबा,/ प्राणों से ज्यादा चिट्ठियों का ख्याल,/ यही है उसका हाल,/ आखिर वह कौन / डाकिया, डाकिया |
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                     इस प्रकार विषय, भाव व कलापक्ष के यथारूप सौन्दर्य से निमज्जित यह कलाकृति जिज्ञासा सुन्दर व सफल कृति है जिसके लिए श्री प्रेमशंकर शास्त्री बेताब जी बधाई के पात्र हैं|


दिनांक-१९ जनवरी, २०१८ ई.                                                                  डा श्यामगुप्त
सुश्यानिदी, के ३४८, आशियाना,                                                  एमबीबीएस, एमएस ( सर्जन )
लखनऊ-२२६०१२.                                                                 हिन्दी साहित्यविभूषण, साहित्याचार्य...
मो. ९४१५१५६४६४



सोमवार, 15 जनवरी 2018

गीत, अगीत और नवगीत...डा श्याम गुप्त



                               


गीत, अगीत और नवगीत
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आजकल हिन्दी साहित्य व काव्य में पद्य-विधा के सनातन रूप गीत के दो अन्य रूप अगीत एवं नवगीत काफी प्रचलन में हैं | --------गद्य-विधा से भिन्नता के रूप में जिस कथ्य में, लय के साथ गति व यति का उचित समन्वय एवं प्रवाह हो वह काव्य है,गीत है|
------तुकांत छंदों के अतिरिक्त, अन्त्यानुप्रास के अनुसार गीत- तुकांत या अतुकांत होते हैं | अतुकांत गीतों को गद्य-गीत भी कहा गया | गीत तो सनातन व सार्वकालिक है ही अतः आगे कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है|
--------यहाँ अगीत व नवगीत पर कुछ दृष्टि डालने का प्रयत्न किया जायगा|
अगीत ---
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-----एक अतुकांत गीत है, जिसमें मूलतः संक्षिप्तता को ग्रहण किया गया है | निराला जी द्वारा स्थापित लम्बे-लम्बे अतुकांत गीतों से भिन्न ये ५ से ८ पंक्तियों में पूरी बात कहने में सक्षम हैं | लय, गति, यति के साथ प्रवाह इनकी विशेषता है जो इन्हें गीतों की श्रेणी में खडा करती है एवं अतुकान्तता पारंपरिक पद्य-गीत से पृथक करती है और संक्षिप्तता प्रचलित पारंपरिक अतुकांत गीतों से भिन्नता प्रदर्शित करती है | इस प्रकार अगीत एक स्वतंत्र व स्पष्ट विधा है एवं उसका का एक स्पष्ट तथ्य-विधान, लिखित शास्त्रीय ग्रन्थ में छंद विधान व रचना संसार है ...उदाहरणार्थ ---
“टूट रहा मन का विश्वास
संकोची हैं सारी
मन की रेखाएं |
रोक रहीं मुझ को,
गहरी बाधाएं |
अन्धकार और बढ़ रहा,
उलट रहा सारा आकाश ||” --- डा रंगनाथ मिश्र सत्य
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नवगीत व उसका भ्रामक संसार ---गीत का सलाद या खिचड़ी----
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--- नवगीत की बात काफी समय से एवं काफी जोर-शोर से कही जा रही है| नवगीत को प्राय: गीत के नवीन एवं आधुनिक स्थानापन्न रूप में प्रचारित किया जाता है|
------नवगीतकार प्रायः यह कहते हैं कि अब गीत पुरानी विधा होगई है नवगीत का युग है | परन्तु यदि ध्यान से विश्लेषण किया जाय तो यह एक भ्रांत धारणा ही है |
-------वस्तुतः नवगीत कोई नवीन विधानात्मक तथ्य नहीं है अपितु पारंपरिक गीत को ही तोड़-ताड़ कर लिख दिया जाता है | इसमें मूलतः तो तुकांतता का ही निर्वाह होता है और मात्राएँ भी लगभग सम ही होती हैं, कभी-कभी मात्राएँ असमान व अतुकांत पद भी आजाता है | इसे गीत का सलाद या खिचडी भी कहा जा सकता है |
------ इसका स्पष्ट तथ्य-विधान भी नहीं मिलता | वस्तुतः यह है पारंपरिक गीत ही जिसे टुकड़ों में बाँट कर लिख दिया जाता है | उदाहरणार्थ---- एक नवगीत है—
“जग ने जितना दिया
ले लिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपने पन का
जाल बुना |
सबके हाथ-पाँव बन
सब की साधें
शीश धरे
जीते जीते
सबके सपने
हर पल रहे मरे
थोपा गया
माथ पर पर्वत
हमने कहाँ चुना | --मधुकर अस्थाना का नवगीत
-------इसे १२-१४ या १६-१० या २६ पंक्तियों वाला सामान्य गीत की भाँति लिखा जा सकताहै –-
जग ने जितना दिया, ११
लेलिया उससे कई गुना | १५
बिन मांगे जीवन में, १२
अपने पन का जाल बुना |१४
या -----
जग ने जितना दिया, लेलिया उससे कई गुना, २६
बिन मांगे जीवन में, अपने पन का जाल बुना| २६
-------
सबके हाथ-पाँव बन, १२ सबके हाथ पाँव बन सबकी- १६
सबकी साधें शीश धरे | १४ या साधें शीश धरे | १०
.जीते जीते सबके – जीते जीते सबके सपने,
सपने हर पल रहे मरे | हर पल रहे मरे |
टेक- थोपा गया माथ पर १२
पर्वत हमने कहाँ चुना
या
थोपा गया माथ पर पर्वत हमने कहाँ चुना | २६


कुछ अन्य उदाहरण देखें ---
१-
------ १४-१२ का पारंपरिक गीत है या नवगीत……
विदा होकर जाते-जाते, १४
बरस बीता कह गया। १२
नवल तुम वो पूर्ण करना, १४
जो नहीं मुझसे हुआ। १२ ----कल्पना रमानी का नवगीत
२-
टुकड़े टुकड़े
टूट जाएँगे १६
मन के मनके
दर्द हरा है १६ = ३२
ताड़ों पर
सीटी देती हैं
गर्म हवाएँ २४
जली दूब-सी
तलवों में चुभती
यात्राएँ २४
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ २४
धीरे-धीरे ढल जाएगा
वक्त आज तक
कब ठहरा है? ३२ ---- पूर्णिमा वर्मन का नवगीत ..
------
------ सीधा -सीधा 24 / ३२ मात्राओं का पारंपरिक गीत है ... इसे ऐसे लिखिए ....
ताड़ों पर सीटी देती हैं गरम हवाएं , २४
जली दूब सी तलवों में चुभती यात्राएं | २४
पुनर्जन्म लेकर आती हैं दुर्घटनाएं | २४
धीरे धीरे ढल जाएगा वक्त आज तक, कब ठहरा है , ३२
टुकड़े-टुकड़े टूट जायंगे मन के मनके , दर्द हरा है | ३२
\
अतः इस प्रकार नवगीत कोई नवीन विधा नहीं ठहरती अपितु पारंपरिक गीत ही है जिसे गीत का सलाद सा बना कर पेश किया जाता है | हाँ इस बहाने तमाम नवीन कथ्य –तथ्यों के नाम पर दूर की कौड़ी के नाम पर , दूरस्थ व्यंजना के नाम पर ....असंगत कथ्य व तथ्य पेश कर दिए जाते हैं सिर्फ कुछ अलग दिखने हेतु | अब आप देखिये ---
“जग ने जितना दिया
लेलिया
उससे कई गुना
बिन मांगे जीवन में
अपनेपन का
जाल बुना | ---- “
क्या इस कथ्य का कोई अर्थ निकलता है ? अर्थात व्यक्ति को दुनिया कुछ देती नहीं वह ही दुनिया को देता है और जो कुछ वह अपने साथ पैदा होते ही लाता है दुनिया ले लेती है | हमें किसी( दुनिया, दोस्त, माता-पिता, भगवान ) का शुक्रगुज़ार होने की क्या आवश्यकता है |
----
होगयी है कर्मनाशा
समय की गंगा
नहाकर जिसमें हुआ
हर आदमी नंगा |
---- यदि नदी कर्मनाशा है तो बुरा क्या है वह तो कर्मों का नाश हेतु होती ही है ...कर्मनाशा का अर्थ क्या है ....कर्मों का नाश तो मोक्ष है ..उचित ही है ...फिर दोष क्या....समय की नदी तो दुष्कर्म कृत्या हुई है जिससे हर आदमी नंगा हुआ है .... अनर्गल भाव है नदी के स्थान पर गंगा का प्रयोग भी असाह्तियिक व असांस्कृतिक है ....|

------
और भी------
“जली दूब-सी
तलवों में चुभती
यात्राएँ
पुनर्जन्म ले कर आती हैं
दुर्घटनाएँ “ ----- ??
“आतंकों में-
शांति खोजना
केवल पागलपन
लगता है। “
---- यह कौन सा नया महान तथ्य है सब जानते हैं |
शाखाओं का बोझ उठाये
बरगद उठ न सका |
---- फिर वह बरगद ही क्यों कहलाता है फिर अतिरिक्त शाखाएं तो उसका बोझ स्वयं उठाती हैं क्या अर्थ है कथ्य का ?
----
सोने के पिंजरे में
हमने
हर पल दर्द धुना |
…... दर्द के कारण अंग धुना जाता है नकि स्वयं दर्द .कोइ धुनने की चीज़ है ..
मुझे तो इन असंगत कथ्यों का अर्थ समझ आता नहीं है यदि आपको तार्किक अर्थ समझ आ रहा हो तो बताएं |
-------- मेरे विचार में तो इस प्रकार की कविता ही कविता व साहित्य, कवि-साहित्यकारों को जन जन, सामान्य जन से दूर करती जा रही है |

मंगलवार, 9 जनवरी 2018

आनिहलवाड की राजकुमारी देवलदेवी पर आधारित उपन्यास।

मेरी स्वर्गीय मित्र निधि जैन ने मेरे उपन्यास देवलदेवी पर ये समीक्षा लिखी थी। अब जबकि इस उपन्यास का दूसरा संस्करण आया है तो मुझे निधि की कमी बहुत खल रही है। देवलदेवी की प्रीबुकिंग अमेज़न पर शुरू है।

फेसबुक और whatsapp पर जुड़ने के बाद से मेरा मोबाइल हाथों से छोड़ना अत्यंत दुष्कर हुआ है। घर के काम करते हुए भी बीच बीच में मोबाइल उठा कर देख ही लेती हूँ।
ऐसे में किताबें पढ़ना मेरे लिए चुनौती है। कुछ 15 दिन पहले 4 किताबें खरीदीं थीं जिनमे से अब तक बस खलील जिब्रान की ही एक कहानी पढ़ी।
ऑनलाइन बुक्स के जरिये मैंने दिसम्बर में प्रेमा,श्रीकांत दो उपन्यास और कई सारी कहानियाँ पढ़ीं..तभी दो बुक्स खरीदीं थीं गोदान और प्रेमाश्रम..गोदान तो तो दिलचस्प लगी..खत्म होने के बाद भी यही लगता रहा कि अभी और होता तो पढ़ा जाता। पर यहाँ दो महीने से प्रेमाश्रम खत्म करने की सोच रही हूँ पर नही हो पाता। वैसे भी इतनी मोटी मोटी किताबें और उपन्यास देखकर ही हाथ पाँव फूल जाते हैं मेरे 
ऐसे में एक लेखक महोदय मुझे इनबॉक्स में अपने एक उपन्यास की पीडीएफ फ़ाइल देते हैं  और बोलते हैं पढ़कर प्रतिक्रिया दीजियेगा  मन में तो आया कि कुछ बक दूँ.. पर घर आये मेहमान की इज्जत भी करनी चाहिए तो उनको बोल दिया 'जी जरूर'..फिर सोचा देखूं तो क्या है इसमें..पीडीएफ खोली #देवलदेवी दो तीन पेज नीचे आई 'उफ़ ये तो इतिहास से सम्बंधित था..'नो वे,किसी कीमत पर नही पढूंगी' सोच लिया था.. एक फ्रेंड Vivek को भी भेज दिया कि शायद ये पढ़कर प्रतिक्रिया देगा तो वो ही लिख दूंगी  ..
खैर शाम को fb पर कोई ख़ास नोटिफिकेशन नही थे तो सोचा थोडा नावेल देख ही लिया जाए.. आंय..ये क्या.. शुरू हुआ तो खत्म करने तक सांस भी न ली.. छोटा था रुचिकर था.. भाषा सुंदर.. कथानक ऐतिहासिक.. नायिका में ठोस नायिका वाले गुण.. जिसमे स्वधर्मपालन की जिजीविषा बचपन से ही दिखती है। मुझे बहुत पसंद आया यह उपन्यास इसलिए खत्म करने के बाद तुरंत लिख रही हूँ।
लेखक समीर ओह्ह सॉरी Sudheer Maurya को बहुत बहुत बधाई.. पहली बार किसी लेखक को मुझसे एक उपन्यास वो भी एक सिटींग में खत्म करवाने के लिए भी बधाई.

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मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा--डॉ.श्याम गुप्त

  मेरे द्वारा की गयी पुस्तक समीक्षा-- ============ मेरे गीत-संकलन गीत बन कर ढल रहा हूं की डा श्याम बाबू गुप्त जी लखनऊ द्वारा समीक्षा आज उ...